बुधवार, 1 जुलाई 2015

सब कुछ फ्री में


                चैराहे पर चमकते हुए बैनर पर शहर के टाॅप क्लास डाक्टर का फ्री मेडिकल चेकअप का विज्ञापन लिखा हुआ देखा तो ऐसा लगा कि कलयुग में भी सतयुग के कुछ विलुप्त प्राणियों के अवशेष अभी भी बचे हुए हैं। एक आम इंडियन की तरह मैं भी उस फ्री के चार्म से अपने आपको वार्न न कर सका और बिना पैसों के हार्म के चेकअप कराने चला गया। आधे घण्टे लाइन में लगने के बाद जब मेरा नम्बर आया तो मुझे लगा कि मेरी यह फ्री का चेकअप लेने की स्ट्रगल किसी फ्रीडम स्ट्रगल से कम न थी। इस फ्री चेकअप के चक्रब्यूह का पहला दौर था सौ रूपये देकर रजिस्ट्रेशन कराना। खैर डाक्टर साहब की फीस वैसे तो तीन सौ रूपये होती है लेकिन ऐसे दिखाने पर भी दो सौ रूपये की सेविंग हो रही थी सो मैंने सौ रूपये देकर पहला स्टेप क्लियर कर लिया।
अगला पड़ाव था डाक्टर से भेंट। जब तक उन्होंने मुझे बाकायदा आला-वाला लगाकर चेक किया तब तक डाक्टर साहब तो साक्षात ऊपर वाले की प्रतिमूर्ति लग रहे थे। लेकिन जैसे ही उनका पेन चला तो महोदय ने पर्चे पर दवाइयों और जांचों का पूरा का पूरा इन्साइक्लोपीडिया ही लिख दिया। पता चला बदन दर्द के लिए डाक्टर साहब ने पाँच सौ रूपये की दवाइयां और पाँच हजार रूपये की टेस्टिंग्स लिख दी थी। दवाइयां पार्टीकुलर मेडिकल स्टोर व जांचे निर्धारित पैथालाॅजी से ही करानी थीं। यह फ्री का चक्रब्यूह मुझे ऐसे घेर लेगा इसका अन्दाजा न था। खैर फ्री मेडिकल चेकअप की असलियत जानकर मैंने अभिमन्यु की तरह शहीद होने के बजाय पतली गली से निकलना ही मुनासिब समझा।
आज तो जिधर देखो उधर सब कुछ फ्री में हो गया है। ऐसा लगता है मानो रामराज्य फिर लौट आया हो। कहीं फ्री कम्प्यूटर कोर्स चल रहे हैं ं,कहीं फ्री हाबी क्लासेज, तो कोई इंजीनियरिंग या मैनेजमेंट स्कूल फ्री लैपटाप ही बांटे डाल रहा है। बड़े-बड़े शापिंग माॅल्स में तो फ्री का ऐसा हल्ला मचा रहता है मानो राजा हरिश्चन्द्र का दरबार लगा हो जहाँ खैरात बंट रही हो। लेकिन जब आदमी इस फ्री के चक्कर में पड़ता है तो पता चलता है कितनी कंडीशन्स अप्लाई होती है। कोई रजिस्ट्रेशन और कमीशन के नाम पर पैसे वसूल रहा है तो कोई गिरती शाख को उठाने की कोशिश कर रहा है, तो कोई घटिया माल ही ठिकाने लगाये दे रहा है।
इस फ्री के चक्कर में एक कहानी याद आती है। एक बार एक राजा ने अपने मंत्री को संसार की जितनी भी बु़िद्धमानी की बातें हैं उनका कलेक्शन करने को कहा। अब मंत्री जी ने संसार भर की अच्छी-अच्छी बातें एक मोटी किताब के रूप में लिख दीं। राजा ने जब बुक का साइज देखा तो बोला, इतना समय किसके पास है, इसको थोड़ा और संक्षिप्त  करो। अब मंत्री जी ने कुछ बातें हटा दीं और बुक का साइज कम हो गया। लेकिन राजा को अब भी बुक मोटी लग रही थी। सो राजा ने उसका साइज जीरो करने को कहा। अब मंत्री ने बहुत पतली किताब में कुछ बातें लिख दीं और उन्हें दिखाईं। राजा को अब भी उस साइज पर ऐतराज हुआ। मंत्री ने अब एक लाइन मंे लिखा और कहा- महाराज संसार की सबसे बुद्धिमानी की बात इससे कम शब्दों में नही लिखी जा सकती। जानते हैं मंत्री ने क्या लिखा-‘‘इस संसार में कुछ भी फ्री में नहीं मिलता है।’’
-अलंकार रस्तोगी


गुरुवार, 25 जून 2015

आँखों की गुस्ताखियां





इस समय हमारे मोहल्ले की सारी तथाकथित बुलबुले साइलेंट मोड में आ लगी है। जीवन  के प्रति उनका सारा उत्साह वैसे ही नदारद हो गया है जेसे आडवाणी जी के लिए पीएम पद का। सजना-संवरना अब बीते जमाने की आडटडेटेड बाते हो चुकी है। ब्यूटी पार्लर जो किसी जमाने में उनका तीर्थ स्थान हुआ करता था, अब किसी कब्रिस्तान से कम नहीं लगता है। कुल मिलाकर जितनी भी छल्ले-उछाल टाईप्ड मोहतरमाएं थी वह सब एम टीवी से दूरदर्शन में कनवर्ट हो चुकी है। उनके जीवन में यह टर्निंग प्वाइंट अभी सरकार के उस हालियां निर्णय से हुआ है जिसमें किसी भी लड़की को घूरने पर गैर जमानती धारा लगाने का प्राविधान है। अब भला खुद बताइए जब लोगों को देखने तक से महरूम कर दिया जाएगा तो फिर क्या फायदा इस कातिलाना हुस्न का। अरे जब पीने वाले ही नहीं होंगें तो मयखाना सजाने का क्या फायदा। 
अब कैसे लड़कियां आपस में गाॅसिप करेगी कि कितने लड़को ने आज उन्हे मुड़-मुड़ कर स्वीट से लुक दिये। अरे जब कोई घूरेगा ही नही तो न अंखियां लड़ेगी, न अंखियां चार होगी और न अखियों में कोई समाएंगा। यानि कि कुल मिलाकर सरकार का यह निर्णय न जाने कितनी संभावनाओं, न जाने कितनी इच्छाओं, न जाने कितनी आशाओं पर सीधा सा कुठाराघात है। न जाने कितने ब्यूटी पार्लरो पर ताले लटकाने की शुरूआत है। न जाने कितनी शहनाज हुसैन गुमनामी की गर्त में समा जाने वाली है। न जाने कितनी फेयरनेस क्रीम अब खुद अंधकार की कालिमा में डूब जाने वाली हैं। अब तो इस कानून से दिल फेक टाईप्ड मोहतरमाएं ख्ुाद आश्चर्यचकित हैं कि उनके अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न क्यो लग गया है। 
इसका दूसरा पहलू भी है। कुछ झुकी निगाहों वाली, कुछ फ्राॅम घर टू स्कूल और स्कूल टू घर टाईप्ड बन्दियां, कुछ एंटी ब्यूटी पार्लर, कुछ बड़े बूढ़ो की लगाम लगी बन्दियां इस फरमान से खुश भी है कि न महफिल सजेगी न जश्न मनेगा। उधर हमारे जैसे सतयुग के कुछ विलुप्त प्राणियों के अवशेष जो वैसे ही मर्यादाओं की सारी टमर््स एंड कंडीशन्स को बखूबी फाॅलो करते है। उन्हे इस प्रस्तावित कानून से उसी प्रकार भय उत्पन्न हो रहा है जैसे बिना हेलमेट पहने गाड़ी चलाने वाले को चैराहे पर खड़े ट्रªैफिक हवलदार को देखकर होता है। हमने आज तक किसी को घूरना तो छोड़िये आंख तक उठाकर नही देखा। यह दूसरी बात कि कोई जब दिल को ज्यादा भा गया तोे उसे कनखियों से देख लिया। कभी-कभी तो हमें अपनी नजरे खुद झुकानी पड़ी जब किसी मृग नयनी ने अपनी तिरछी नजरों से हमें घूरकर देखा। अब तो हम इसी अंदेशे में जी रहे हैं कि कहीं कोई हमें ही न ताड़ ले और उल्टा तोहमत लगा दे कि हमने उसे घूरा। वैसे इस बात का क्या सबूत होगा कि उन्होंने हम पर नजर-ए-इनायत की या फिर हमने उनका दीदार किया। अब तो आंखो की गुस्ताखियां न हो इसके लिए हम रात में भी धूप का चश्मा लगाए फिरते हैं और अपनी आबरू को रूसवा होने से बचाते है।
    अलंकार रस्तोगी

मंगलवार, 23 जून 2015

मानवीय आधार या माननीय आधार

मानवीय नहीं ,माननीय आधार
इन दिनों जब से मानवीय आधार पर किये गए सारे कार्य प्रश्न चिन्हों से परे हो गए हैं तब से लोगों ने अचानक हर कार्य का आधार मानवीय आधार को ही बना लिया है . अब तो हालत यहाँ तक आ गई है कि लोग  सरकार से आधार कार्ड से ज्यादा एक अदद मानवीय आधार कार्ड बनवाने की अपील करने लगे हैं . वैसे तो हर वह बंदा जो किसी पार्टी की सरकार बनवाने में मदद करता है उसे सरकार बनने के बाद ऑटोमेटिक मानवीय आधार का कोटा एलोट हो जाता है . यानी मानवीय आधार से डूबा प्यार पाने का वह हर बंदा स्वाभाविक रूप से हकदार हो जाता है जो सत्ता के यें- केन- प्रकारेण नज़दीक रहा हो . शायद बहुत ही पहले जमाने की बात रही होगी जब मानवीय आधार का हकदार वाकई समाज का दबा –कुचला और ज़रूरतमंद वर्ग रहा होता होगा क्योंकि जबसे हमने होश संभाला है तब से तो मानवीय आधार कार्ड किसी न किसी माननीय के पते पर ही पहुँच रहा है . हर शोषित को जहाँ किसी मदद के लिए सुविधा शुल्क का आधार लेना पड़ता हो वहीँ इस देश के माननीयों को यह मानवीय आधार ब्रांड वाली सुविधा अपनी प्रीपेड सेवाओं के एवज में आसानी से मिलती दिख जाती है .
       अब यह नयी बात नहीं रह गयी कि सत्ताधारी दल किसी की नियमों को ताक पर रखकर मदद करे . लेकिन अगर हर गलत मदद करने का आशय मानवीय आधार बता दिया जाये तो शायद यह पवित्र शब्द भी प्रश्न चिन्ह के दायरे में जायेगा . अब तो बाबा भारती की वह कहानी याद आती है जब एक डाकू ने मदद लेने के बहाने धोखे से उनसे उनका घोड़ा हथिया लिया था . तब बाबा भारती ने कहा था कि किसी को यह नहीं बताना कि तुमने याह घोड़ा कैसे छल से प्राप्त किया था वरना कोई किसी कि मदद नहीं करेगा लोगों का मानवता से भरोसा उठ जायेगा . ठीक यही अब हो रहा है मानवीय आधार देकर ऐसे बन्दे की मदद की जा रही है जो कानूनी रूप से गलत है  . समझ में यह नहीं आता है कि मानवीय आधार पर किसी को पैरोल मिल जाती है , किसी को बेल मिल जाती है और किसी को वीजा भी मिल जाता है लेकिन रोज़ के रोज़ आत्महत्या करने वाले किसानो को बचाने का किसी को कोई मानवीय आधार नहीं मिल पाता है . अब देखना है कि जब सरकार चलाने का आधार कानूनी से मानवीय हो जाता है तब इस आधार की मांग सरकार कहाँ तक पूरी कर पाती है .       
अलंकार रस्तोगी
448\733 बाबा बालक दस पुरम ,

ठाकुर गंज ,लखनऊ -3

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

और खिचड़ी पक गयी

गरमागरम भाप निकालती हुई खिचड़ी को आपने दही, पापड़, घी और आचार के साथ खाने के अलावा कभी समझने की कोशिश की है? अरे भाई खिचड़ी सिर्फ भोजन ही नहीं होती बल्कि इसके पीछे एक अच्छी-खासी फिलासफी भी छुपी होती है। जो जाने-अनजाने हम भारतीयों को प्रेरित भी करती रहती है। हमारे भारतीय समाज को ही ले लीजिए, पूरी तड़का मार खिचड़ी का स्वाद देता है। विभिन्न धर्म रूपी दालें, बोलियां रूपी मसाले, संस्कृति रूपी चावल और फिर जब उसमें एकता रूपी तड़का लगाया जाता है तो फिर कहना ही क्या इस सारे जहां से अच्छी खिचड़ी के। हाँ, कभी-कभी यह खिचड़ी जल जरूर जाती है जब इसे साम्प्रदायिकता रूपी भट्ठी पर चढा दिया जाता है। हमारे देश में तो इसी खिचड़ी से प्रेरित होकर सरकारें तक बनती चली आ रही हैं। यकीन न हो तो इसकी सामग्री  आप भी नोट कर लीजिए। छोटे-मोटे राजनीतिक दलों रूपी दालें और निर्दलीय रूपी मसाले, दल-बदलू स्वादानुसार उनको मंत्री पद रूपी कूकर और सुविधाओं रूपी आँच में पका लीजिए और फिर तैयार हो जाती है एन0डी0ए0 या यू0पी0ए0 रूपी खिचड़ी। जितना मन चाहे खाओ और मजबूर जनता को भी न चाहते हुए पांच सालों तक झिलाओ।
अब बताइये अपने देश में त्योहारों की कोई कमी है, यहां त्यौहार ऐसे भरे पड़े हैं जैसे सुनील शेट्टी के शरीर में बाल। ऐसे में हमारी हर दिल अजीज खिचड़ी के लिए भी बाकायदा एक अच्छा खासा त्यौहार बना हुआ है। भला खिचड़ी की महिमा को साबित करने के लिए इससे बड़ा और सबूत क्या हो सकता है। अगर देखा जाए तो न्यूमरोलाॅजी के हिसाब से भी अपनी खिचड़ी का ‘के’ लेटर बिल्कुल सटीक है। तभी तो अगलों ने इस नाम का सीरियल तक बना डाला था। यह इसका बड़प्पन ही तो है नहीं तो ‘के’ अक्षर वाले नामों का अकाल थोड़े ही पड़ गया था। कीमा, कोरबा, कवाब, कटलेट और खीर भी तो बचे थे। 
अगर खिचड़ी को खिचड़ी ही मानकर चलें तब भी संजीव कपूर तक की डिश भी इस टक्कर नहीं दे सकती। खिचड़ी बनाने में जितना कम समय लगता है उतना तो दूसरे खानों की तैयारी में ही लग जाता है। चट मंगनी और पट ब्याह की तरह इधर चढाया और उधर खाया। बरतन भी कम लगते हैं, न कटोरी न चम्मच, न छुरी न कांटा। पौष्टिकता में भी खिचड़ी किसी से कम नहीं। दालों में भरपूर प्रोटीन जो होता है। कोई बीमार होता है तो भी बेचारा खिचड़ी के सहारे ही नैया पार लगाता है। मोटे लोग भी डाइटिंग में खिचड़ी के भरोसे ही स्लिम-ट्रिम फिगर पा लेते हैं। क्या खिचड़ी पक रही है? काफी सटीक मुहावरा है, सरकार गिराने वालों पर और लड़के-लड़की के साथ होने पर एकदम फिट बैठता है। बीरबल की खिचड़ी वाला मुहावरा तो सुना ही होगा आपने। बताइये बीरबल जैसे बुद्धिमान तक को भी खिचड़ी का ही सहारा लेना पड़ा। वैसे खिचड़़ी पकाना और खाना जितना सरल है उतनी ही सरल इसकी फिलासफी भी है। खिचड़ी प्रतीक होती है एकता की, मेल-जोल की, सादगी की, ताकत की और शीघ्रता की। बस जरूरत इस बात की है कि आज आदमी सिर्फ खिचड़ी की फिलासफी को ही समझ लो तो शायद यह देश भी ताजी खिचड़ी की तरह सुगन्ध देने लगे। 
                                                              अलंकार रस्तोगी

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

मेरे देश की धरती सोना उगले

अब मनमोहन सरकार तो कुछ कर नहीं पायी ,चलिए शोभन सरकार ही देश का कुछ भला कर पाए . इस समय पूरा देश टकटकी लगाये बस यही जानने में लगा हुआ है कि शोभन सरकार का सपना सच हुआ या नहीं . धरती ने सोना उगला या नही पूरे देश के सपने आज यंही पर आकर एकसूत्रीय हो गए हैं . आज आम आदमी का रोटी ,कपडा और मकान वाला परंपरागत सपना राष्ट्रहित  में इसी राष्ट्रीय सपने में विलीन हो गया है .धरती में सोना है या नहीं का अभी तक का राष्ट्रीय और जल्दी ही अंतरराष्ट्रीय मुद्दा टॉप पर है तो कोयला घोटाला , सीमा पर घुसपैठ , आतंरिक सुरक्षा , स्वच्छ सरकार जैसे मुद्दे आउटडेटेड से लगने लगे हैं .
बताइए एक बाबा हकीकत के धन को देश में लाने की बात कहते कहते खुद सरकार की आँखों की करकिरी बन गए हैं .वहीँ दूसरे बाबा के उस सपने के धन को लाने के लिए सरकार इतनी उत्साहित हो गयी है कि आज वही स्वप्नदर्शी बाबा देश के संकट मोचक माने  जाने लगें हैं . खैर सपनो को हकीकत में बदलने का दावा तो हर सरकार करती है .हो सकता है यह कार्यक्रम भी उसी वादे की पूर्ति प्रक्रिया हो . सरकार के लिए वह धन जो स्विस बैंक में जमा है इस लिए भी निरर्थक हैं क्योंकि भले भले ही वह कला धन हो , कमाया तो मेहनत से ही गया है .अब बताइए घोटाले करो , मुकदमे झेलो , न जाने किन किन को मैनेज करो और जरा सा चूके तो बेचारे बन बुढ़ापे में जेल की हवा खाओ . ऐसा खून पसीने की कमाई से जमा किया धन पर्सनल सम्पदा होता है , लोग इसे बेवजह राष्ट्रीय सम्पदा बनाने का सपना संजोये हए हैं .
सरकार के लिए तो अब धरती का सोंना निकलना ही एक सूत्रीय राष्ट्रीय लक्ष्य हो चूका है . आखिर आम  जनता का सपना जो पूरा करना है . जनता भी सोने के लिए अपना सोंना हराम किये हुए है . देश अपनी समस्या का समाधान अपने कीमती वोट से चुनी हुई सरकार से करने की बजाये किसी बाबा के सपने में ढूंढ रहा है कि इधर धरती ने सोना उगला उधर देश फिर से सोने चिड़िया बन गया . वैसे भी जिस देश में मूर्तियाँ दूध पीने लगती हों, मुंहनुचवा जैसा वहम लोंगों की रातें खराब कर देता हो , वंहा अगर जमीन से सोना निकलने लगे तो हैरानी तो कतई नहीं होनी चाहिए . हाँ एक वास्तविकता यह है कि इस चक्कर में देश महगाई , भ्रष्टाचार  जैसे संवेदनशील  मुद्दे भुलाये दे रहा है .     

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

इनके बोल बड़े अनमोल

शर्मा जी पिछले बीस मिनट से टी0वी0 के बीस कामर्शियल बे्रक्स के इमोशनल अत्याचार को झेलते हुए ढाढस बांधे दाती महाराज के श्रीमुख से अपने भाग्य फल जानने की कोशिश में लगे हुए हैं। जनाब इन ज्योतिषाचार्यों के इतने बड़े फैन हैं कि अपने पूरे दिन का प्लान, इनके दिये हुए ज्ञान के आधार पर ही फिक्स करते हैं। यूं समझ लीजिए हमारे शर्मा जी का सारा साफ्टवेयर इन्हीं ज्योतिषियों के द्वारा डाउनलोड किया जाता है। हमारे शर्मा जी सुबह उठते ही टी0बी0 के सामने नतमस्तक होकर समाधि लगा लेते हैं और बारी-बारी से हर चैनल के ज्योतिषियों से अपनी राशि की पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट सुनते हैं। जब जनाब सारे विशेषज्ञों की राय सुन लेते हैं तब जाकर कहीं अपने पूरे दिन का चलना-फिरना, उठना-बैठना, खाना-पीना तय करते हैं।
एक दिन तो हद ही हो गई। एक ‘बोले तारे’ कार्यक्रम में किसी ने बोल दिया कि ‘आज विपरीत लिंग के लिए आपकी सहभागिता बढ़ सकती है’। अब शर्मा जी कन्फ्यूजन में पड़ गये कि श्रीमती जी तो उन दिनों मायके में विराजमान थीं। अब इनका यह भाग्यफल आखिर पूरा कैसे हो? अब भाग्यफल है तो उसे तो घटना ही है। यही सोच लिये जनाब छत पर कपड़े फैलाने निकले। यूं समझ लीजिए उन्होंने आस-पड़ोस की सभी छतों की स्कैनिंग कर डाली। कहीं कोई भाभी जी तो इनमें इन्ट्रेस्ट नहीं ले रही। खैर छतों पर भाभी जी टाइप की तो कोई चीज नहीं मिलीं अलबत्ता दो-चार धूप सेंकती चाचियाँ जरूर दिख गयीं। अब महोदय निराश होकर आफिस में ही इस भविष्यवाणी के सच होने की आशा बनाने लगे। फ्लशबैक में जाकर जनाब सोचने भी लगे कि अभी कल ही तो बगल की रीना जी ने उन्हें लन्च आफर किया था। आज हो सकता है कुछ और आफर कर दें। अब जनाब जोश से भरे हुए और होश से डरे हुए जैसे ही आफिस पहुंचे, पता चला आज बास और रीना जी किसी आफीशियल टूर पर गये हैं। अपने दिल के हजारों टुकड़ों को फेवीक्विक से जोड़ने के बाद वह समझ गये कि यह भाग्यफल इनका नहीं उनके बाॅस का था।
हमारे शर्मा जी इन ज्योतिषियों के बताये हुए समाधान पर भी गहरी आस्था रखते हैं। जनाब की दसों उंगलियां रंग-बिरंगे नगीनों की अंगूठियों से भरी रहती हैं। गले में दो-चार ताबीज हमेशा लटकते रहते हैं। कभी इस पेड़ के नीचे दिया जलाते हैं तो कभी उस पेड़ पर धागा बांधते हैं। समझ लीजिए कि महोदय हर दिन एक भूरी गाय को रोटी खिलाने का टारगेट पूरा करते हैं। इस चक्कर में दो-तीन किलोमीटर दूर टहलते हुए न जाने कितनी सफेद, काली और भूखी गायों को नजर अन्दाज करते हुए अपने लक्ष्य को पाकर ही मानते हैं। खैर मुझे आज तक समझ ही नहीं आया कि आपकी ग्रह नक्षत्र सुधारने में भूरी गाय को ही खाना खिल।ने की शर्त आखिर क्यों ? क्या सफेद या काली गाय की दुआ में कम ताकत होती है ?

-अलंकार रस्तोगी


रविवार, 13 अक्तूबर 2013

आपदा ग्रस्त बाबा

वह बाबा जो भगवान् का पर्यायवाची तो छोडिये उन्ही की गद्दी को हिलाए पड़े हैं..वह बाबा जो अपना साम्राज्य को किसी चक्रवर्ती सम्राट की तरह बढ़ाये चले जा रहें हैं..वह बाबा जो अपने तंत्र को प्रजातंत्र से ऊपर मानने लगें हैं..वह बाबा जो नेताओं के लिए अपरिहार्य हो चुके हों..वह बाबा जो साधक साधिकाओं के लिए परम आदरणीय, अहम् अनुकरणीय हों. आज वही बाबा इस बाबा परायण देश में आपदाग्रस्त की श्रेणी में आ गए हैं ।खैर आपदा तो वाकई आ ही  गयी है । कारण जो भी रहा हो । भले ही वह किसी दुराचार के मामले में आरोपित हों । भले वह अवैध धंधों में लिप्त हों । भले वह भू- माफियों के भी बाप हों । भले ही वह लड़कियों का शोषण कर रहे हों । भले ही बाबागिरी की आड़ में न जाने क्या क्या ताड़ रहें हों । भले ही वह अपनी उम्र, गरिमा, सामाजिक मान्यता के परे गतिविधियाँ कर रहे हों । आज आपदाओं के भंवर में खुद घिर गए हैं. ।
हर वह प्राणी जो बाबागिरी के मूल तत्वों  से युक्त है, वह इस बाबा जगत के आकाश में धूमकेतु की तरह चमकने की फिराक में लगा हुआ है । खैर हर  धूमकेतु की भी अपनी एक उम्र होती है और लगता है कि आज इन्ही धूमकेतुओं पर ग्रहण लग गया है । बाबा तो बाबा  उनके इस पुनीत कार्य में उनके पूरे परिवार का भी  अपार  सह्योग रहा है। वैसे परिवार जैसी संस्था का उद्देश्य भी यही होता है। यह दूसरी बात है की यहाँ  सहयोग नकारात्मक हो रहा था ।
इस समय बाबा ब्लैक शीप की तरह आचरण पर उतर आयें हैं। नये नए कारनामे उजागर हो रहें हैं । जो बाबा दुनिया को माया मोह से विरत रहने की जुगत बताते हैं,वही इसमें लिप्त पाए जा रहें हैं। जो बाबा लाखों करोडो की जनता के सामने तरह तरह की लीलाएं करते घूम  रहे थे, आज वही बाबा अपनी ब्लैक शीप वाली हरकतों के कारण इसी जनता से भागे भागे फिर रहे हैं । इन बाबाओं की शक्ति आज लोंगो की भक्ति को धता बता कर चिढाती फिर रही है। आज बाबा ब्लैक शीप पलायन कर गए हैं । वह अपने कुकृत्यों से इतने भयभीत हैं कि उन्हें पूरी दुनिया का सामना करने का साहस लुप्त हो गया है । चलो इस प्रजातान्त्रिक विवशता वाले देश में कम से कम इन बाबाओं के  पलायन के बाद जनता कुछ राहत की सांस तो ले सकेगी ।                                                                  
                            

                       अलंकार  रस्तोगी